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रोटी के चार हर्फ़

सरगोशियाँ
सरगोशियाँ
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ं मास्टर किया है। एक उम्दा अफसानानिगार था वो लेकिन जाने क्यूँ उसने अफ़सानानिगारी के फ़न को दफ़न कर लिया था अपने सीने में। सवाल पूछा तो दर्द खुद-ब-खुद लबों पर पसर गया। “भाई साहब, मैं भी चाहता हूं कि ख्यालों में उतार लूं अपने महबूब को और चंद मरमरी लफ़्ज़ों से तराश दूँ उसका जिस्म लेकिन सारा जोश काफूर हो जाता है जब ख्याल आता है बाबूजी का जिनके जिस्म पर भूख ने इतने खंज़र मारे हैं कि सिर्फ हड्डियों का ढांचा दीखता है। अकड़ जाती है कलम की निब जब कागज पर उतारता हूं उस माँ का अक्स जिसकी आँखें पीप से भर गयी हैं। फटने लगती हैं ज़ेहन की सारी नसें जब ख्याल आता है घर के कोने में दुबके उन औरतों का जो हाथ भर की कतरन से अपना जिस्म छुपाने की जद्दोजहद कर रही हैं। मरमरी अल्फाजों से दिल बहलाया जा सकता है, भूखे पेट नहीं।”
“अबे वो बिहारी, तुझी आई झवली, ज्यादा चर्बी है तेरे को….. चल काम कर साले कामचोर” सुपरवाइज़र चिल्ला उठा था। वह चला गया, ज़ेहन में एक शेर छोड़कर…
खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए…….
सवाल ये है, किताबों ने क्या दिया मुझको !
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