यादों की एक उम्र
ीम, आम, बरगद, पीपल… कभी हमारे हमशाख बने तो कभी हमसोज़। मगर तुम्हारे लिए तो वो तुम्हारे हमराज़ थे.. न जाने कितने दरख्तों के सीने को कुरेदकर लिखा है तुमने अपना दर्द…तुम्हारे दर्द का हिस्सेदार जरूर बनता अगर समाज के हिस्सेदारी का ख्याल नहीं होता। हाँ, उस दिखावटी “त्याग ” का दर्द आज भी सालता है मुझे। अटका पड़ा है एक फाँस बनकर। खैर छोड़ो, तुम्हारे लिए एक शेर छोड़े जा रहा हूं..शाहिद मीर का
तेरा मेरा नाम लिखा था जिन पर तुमने बचपन में…
उन पेड़ों से आज भी, तेरे हाथों की खुश़बू आती है.
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