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जीत-हार

सरगोशियाँ
सरगोशियाँ
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र बैठ चिल्ला रही थी “कम ऑन….कम ऑन”…..सबको चीरता मैं आगे निकल आया था. मैं जीत चुका था..मगर उस दिन तुम्हारी आवाज़ कानों में नहीं गूंजी…पीछे मुड़कर देखा मगर तुम नहीं थी…इधर-उधर हर तरफ खोजा मगर तुम नहीं मिली…मुझे यकीन है तुमने आवाज़ दी होगी…चिल्लाई होगी…मगर जीत की जेहनी सरगोशियों के बीच तुम्हारी आवाज़ दब गई होगी और इसी बीच दब गई होगी तुम भी किसी गहरे खाई में…किसी चट्टान के तले..कितना कुछ खो देता है एक इंसान, फक्त एक जीत के सदके……

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