घायल जज्बात
सुकून के लिए ज़ेहन के निजी डायरी में अपने घायल जज्बातों को लिखता रहता हूं। तुम्हारी याद सिर्फ याद होती तो मुमकिन था कि जेहनी सरगोशियाँ नहीं होती। वह तो घायल जज्बातों की पोटली है। तुम कहती हो कि उस पोटली को फेंक दूं। चलो ठीक है… फेंक देता हूं ….लेकिन उस एहसास और छुअन का क्या जो लम्हों को पीने वाले यादों के लरजते होंठों पर शबनम की तरह टपकती रहती है।एहसासों की छटपटाती हुई नब्ज को करीने से टटोला है मैंने। जो कुछ भी लिख रहा हूँ उस हर लब्ज को घायल जज्बातों से समेटा है। बेनाम रिश्ते में जज्बात क्यों इस कदर हावी हो जाते हैं, इसका एहसास अब हो रहा है। खैर तुम्हारे लिए एक शेर छोड़े जा रहा हूं …अरे मैंने नहीं लिखा है बाबा …किसी अजीम शायर ने लिखा है… हमारी इतनी बिसात कहां …
तेरे तअरुफ में ये कौन-सी अजनबीयत
न तुझे पाकर चैन, न तुझे खोकर चैन
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