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(1)
सालों बाद लौटा हूँ, अपने गांव में. उस मिट्टी की गोद में जिसकी धूल फांकते-फांकते ना जाने कितने किस्से कहानियों का जाने अनजाने में हिस्सा बन गये. देवदार युकेलिप्टस जैसे दरख्तों के बीच बनी वह पगडंडी -जो बाज़ार से निकलकर, घने जंगल को पार करती हुई, गांव की सरहद पर तनकर खड़े बरगद से गुजरकर, तुम्हारे घर तक आके गुम हो जाती थी-आज भी है. उफ्फ़, दूर क्षितिज तक पसरे सरसों के फूलों के पांखूर से फिसकती शबनम. छ्तों के दरारों से दुल्हनें झांक रही हैं. चारपाई तोड़ रहे कुछ कमसिन लड़कों की सवालिया आँखें ‘कौन हो’ के अंदाज में घूर रही हैं. तुम्हारे बाबूजीको देखा, हमेशा की तरह चारपाई पर बैठ खामोशियों से गुफ्तगू करते हुये. तुम्हारे घर की मुंडेर को छूकर गुजरने वाली वह नीम की डाली कब की टूट चुकी है जिसकी पत्तियों को तुम हर शाम न जाने किसके इंतेज़ार में कुतरा करती. और कमबख्त वो ठीठ पत्तियाँ, अगली सुबह फिर उग आती. शायद उन्हे अच्छा लगता था तुम्हारे हाथों से यूं कुतरा जाना. घर पहुंचा था. मन बेचैन सा था. सो निकल पड़ा जंगल के बीचो-बीच जहां दफना दिया गया था तुम्हारी ख्वाइशों और ख्याबों की शिकस्ता दुनिया को, जहां दफना दिया गया था तुमको और तुम्हारी रूह को. एक हिन्दू से दिल्लगी की इतनी बड़ी सजा. काश वो समझ पाते कि…
जो मोमिनो काफ़िर है, वो दिल ही नहीं रखते
दुनियाए मोहब्बत में काबा है ना बुतखाना
(2)
मेरा गांव जिंदा है….चबूतरे पर बिछी खाट तोड़ती बूढी जिस्म में, जो अतीत के पुराने करघे पर हर रोज बुनती है खुशरंग यादों की कतरन… दरवाजों के दरीचे से झांकती उन जवान आँखों में, जिनके काजल विरह वेदना की सरिता में ना जाने कब का बहकर सूख चुके हैं…मेरा गांव जिंदा है. शायद उनके इंतेज़ार में जो बस चुके हैं दूर कहीं किसी शहर में और चले गये हैं लेकर अपने साथ उसका बांकपन. …शायद उनके इंतज़ार में जो दो जून की रोटी के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं शहरी ज़िंदगी से और छोड़ गये हैं खाली पगडंडी और वीरान बगीचा. चौपालें अब दुआ-सलाम नहीं करती. बच्चे कंकड़ों से नहीं खेलते. बूढ़ा बरगद छांव नहीं देता. मटर की खेत अब रातों में जागती नहीं हैं. न पड़ोसी है, न भाई है, न नाते हैं, न रिश्ते हैं. अपने घर में ही घुट-घुट कर जी रहा है मेरा गांव..मेरा गांव जिंदा है….बस जिंदा.
खैर दिल बहलाने के लिये कैफ़ी साहब का ये शेर पढ़ लीजिये…
महक खुलूस की इस संदली गुबार में है,
मोहब्बत आज भी जिंदा मेरे दयार में है.
(3)
कल शाम मिली थी मुझसे. ओसारे में छिपकर बैठी थी, शायद कोहरे की डर से. उधर से गुजरा तो पकड़ कर बैठा लिया अपने पास और सुनाने लगी गांव-गुवाड़ की बीती बातें….वीरान मकानों की आबाद कहानी…उजाड पोखरों के गुलज़ार किस्से…ठंडी सांस लेटी घाघरा नदी के इर्द गिर्द बुनी गयी अंतहीन दास्तां… कुछ हकीकत, कुछ फसाने. कुछ आप बीती, कुछ जग बीती…थोडी देर बाद वापस लौट गयी, यादों की उन ख़ुशबुओं को बिखेरते हुए जिनका वह क़र्ज़दार थी. उसके पहलू में और भी कई ख़ुशबुएं थीं जिसे वह भुला बैठी थी.शायद वो कैद हों, बढ़ती उम्र के किसी कैदखाने में. ये हवा भी ना, आजकल दादी की नकल करती है. हमेशा किस्सागोई पर उतर आती है.
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