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वह हर बकरीद को अपने अब्बा से मासूम सा सवाल करता,”अब्बा, खुदा इतना नासमझ और जालिम तो नहीं कि खुद की इबादत के लिए करोड़ों बेजुबानों की कुर्बानी मांगे.” अब्बा के पास बैठे मौलवी साहब समझाते हुए कहते , “ऐसा नहीं कहते बेटा। यह तुम्हारे मूरिस हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सुन्नत है। इससे खुदा की राह में कुर्बान होने का जज्बा पैदा होता है और वह जन्नत का हक़दार बनता है” वह जब इस जवाब से संतुष्ट नहीं होता तो अब्बा उसे एकांत में ले जाकर समझाते ,”कुर्बानी एक मज़हबी रस्म है बेटा। सब करते हैं तो हम भी करते हैं। इस्लाम से इतर हमारी कोई ज़िंदगी नहीं। हमने रस्म नहीं मानी लोग समझेंगे कि हमने अपना अकीदा बदल लिया”
उम्र के पंख पर सवार होकर, बेहतर तालीम की चाह में, वह अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से होते हुए जेएनयू आ पहुंचा। मगर वह उस सवाल से खुद को कभी मुक्त नहीं कर पाया। आज सालों बाद बकरीद के दिन वह अपने गांव लौटा। मोहल्ले की नालियां खून से बजबजा रही थी। पकी गोश्त की खुशबू हवा के संग अठखेलियां खेल रही थी। मोहल्ले में काफी चहल-पहल थी। सब एक दूसरे के साथ गलबाहियां कर रहे थे। लेकिन किसी ने उसे “अस्सलाम वालेकुम” नहीं कहा। किसी ने आगे बढ़कर उसे गले नहीं लगाया। वह अपने घर की तरफ बढ़ चला। घर पर एक अजीब सी खामोशी थी। वह दबे पांव अन्दर दाखिल हुआ। देखा कि अम्मी बेसन की कढ़ी बना रही थी। अब्बू अम्मी का हाथ बटा रहे थे। वह सब समझ गया था। क़दमों की आहट सुन दोनों पीछे मुड़े। अपने लाडले को देख उनकी पलकों पर पानी की कुछ बूंदें आकर ठहर गयी। उन्होंने लपककर उसे अपनी गोद में भींच लिया। तीनों एक दूसरे से लिपटकर रो रहे थे।
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